नृत्य में मूर्तिकला व चित्रकला के तत्वों का सौन्दर्य
Main Author: | डॉ. सुचित्रा हरमलकर |
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Format: | Article eJournal |
Terbitan: |
, 2019
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Subjects: | |
Online Access: |
https://zenodo.org/record/3592648 |
Daftar Isi:
- नृत्यकला के साथ शिल्प व चित्रकला के तुलनात्मक अध्ययन में स्पष्ट हो जाता है कि इन कलाओं के कतिपय पक्ष भारतीय नृत्यकला की तकनीक के आवश्यक अंग है तथा इसमें इन सभी कलाओं (प्रमुख रूप से ललित कलाओं) के मुख्य गुण समाहित है। नाट्यशास्त्र आदि ग्रन्थों में जो प्रमाण उपलब्ध है उससे यह स्पष्ट होता है कि ईस्वी सन् के प्रारम्भ से ही मूर्तिकला, चित्रकला, काव्य, नाट्य नृत्य संगीत आदि को मात्र शिल्प कौशल या छन्द से बनी रचनाओं की अपेक्षा श्रेष्ठ और महत्त्वपूर्ण माना जाने लगा था, चूंकि इन कलाओं से प्रक्षेपित होने वाला भाव अधिक सुखद एवं हृदय को आनंद देने वाला था तथा जिसकी अनुभूति अधिक अर्थपूर्ण भी थी इसीलिए इन कलाओं को श्रेष्ठतम का दर्जा दिया गया और इन्हें ललित कलाएं कहा गया। ''ललित कलाओं में तत्व का निरूपण तथा आस्वादन दोनों ही पक्ष सूक्ष्म संवेदनशीलता की अपेक्षा रखते है। इनकी अनुभूति और अभिव्यक्ति का माध्यम मानव की सूक्ष्म इन्द्रियां है जिनके द्वारा आनन्द प्राप्त किया जाता है।''1 किसी भी कला के सृजन के तीन स्तर होते हैं - अनुभूति, अभिव्यक्ति और आस्वादन।