न ृत्यकला में र ंगा ें का समन्वय

Main Author: डा ॅ. पि ्रयंका व ैद्य
Format: Article Journal
Terbitan: , 2017
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Online Access: https://zenodo.org/record/889278
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  • सृष्टि में सभी पदार्थ चर, अचर, प ्रकृति पा ैध े, पुष्प सभी रंगा ें से सराबोर ह ैं। यह सारी सृष्टि रंगा ें में डूबी र्ह ुइ है। प्रत्येक वस्तु का अपना अलग रंग ह ै। हर फूल, पा ैधा पल्लवित होने से लेकर मुरझााने तक र्कइ रंग व आकार में दिखाई देता ह ै। हर वस्तु का स्वरूप, रंग व आकार हमें रंगा ें का हमारे जीवन में महत्व को दर्षा ता ह ै। कहते ह ै ं ”नृत्यमयं जगत्“ अर्थात् यह सम्पूर्ण जगत् नृत्यमय ह ै। इस प ्रकृति व रंगा ें से मनुष्य ने अपना जीवन को संवारा व इसके माध्यम से अपनी मना ेभावनायें व्यक्त की। पंछी से उड़ता, नाचता व गाना सीखा तो प्रकृति के रंगा ें से स्वयं का े सवांरना सीखा। कहते ह ैं एक पेड़ जो अचर ह ै परन्तु जब हवा चालती ह ै तो उसकी टहनीयाँ एक लय म ें डा ेलती ह ै, फिर मनुष्य तो संव ेदनषील प ्राणी ह ै वह सुख में, दुःख में क्रा ेध में कला का े अपनी प ्रतिक्रिया का माध्यम बना लेता ह ै। सृष्टि क े कण-कण जन रंगा ें में झूम उठते ह ै ं, फ ूल-पत्तों क े रूप रंगीन हो अपना हृदय खोलकर नवजीवन का स्वागत करते ह ैं, ता े सारी सृष्टि गीत, संगीत, सुगंध आ ैर रंग लेकर उमड़ पड़ती ह ै। प ्राचीन षास्त्रों में 64 कलाओं में गायन, वादन, नृत्य, मूर्तिकला, काव्य, चित्रकला इन सबका विषेष महत्व ह ै। ये ललित कलायें एक दूसरे से अलग हा ेते ह ुये भी एक दूसरे क े प ूरक ह ैं। संगीतकार धुन बनाते समय किसी चित्र का े कल्पना करता है, कवि अपने काव्य की रचना में अमूर्त स्वरों का े छन्द का वाहन बनाता ह ै। चित्रकार या षिल्पकार षब्द क े आश्रय से विषय वस्तु का े अपने मस्तिष्क में आकार देकर उसे मूर्त रूप प ्रदान करता ह ै। कवि किसी चित्र की कल्पना करके काव्य का सृजन करता है आ ैर चित्रकार काव्य सुन कर स्वर-लहरिया ें में खा े कर अपनी कृति का निर्माण करता ह ै और नृत्यकार इसी काव्य, व राग रागिनिया ें व का े अपनी कला से मूर्त रूप दे दर्षका ें के समक्ष प्रस्तुत करता है। षास्त्रीय नृत्या ें में रंगा ें का प ्रयोग नया नही ं है। नाट्य षास्त्र में अभिनय वेदा ें में आहार्य व चित्राभिनय का े स्थान प ्राप्त ह ै। आहार्य अभिनय में जहां नेपथ्य विधान के चारों प ्रकार 1) प ुस्त (डवकमसे), 2) अंलकार (सज्जा), 3) अंग रचना (आकृति परिवर्तन) एवं 4) संजीव (जीव-जंतु का नाट्य में प ्रयोग) होता ह ै वहीं चित्राभिनय क े माध्यम से नृत्य में प ्रयुक्त होने वाले प ्राकृतिक व चित्रात्मक प्रतीक का े प्रदर्षन में दर्षा ना अभिनय षिल्प का एक विधान माना ह ै।