वर्तमान समयानुसार संगीत पाठ्यक्रम ̈ ं म ें बदलाव की आवष्यकता
Main Author: | श्रीमति स्वप्ना मराठे |
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Format: | Article Journal |
Terbitan: |
, 2017
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Subjects: | |
Online Access: |
https://zenodo.org/record/886835 |
Daftar Isi:
- युग परिवर्तन सृष्टि का सम्बन्धित नियम है, जिसक¢ अन्तर्गत सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक वातावरण भी बदलते रहते हैं। अतः युगानुकूल संगीत षिक्षा की पद्धति में भी परिवर्तन ह ̈ना आष्चर्यजनक घटना नहीं है। भारतीय संस्कृति विष्व की उन संस्कृतिय ̈ ं में से एक है जिसने सम्पूर्ण विष्व क ̈ नई दिषा एवं सृजनात्मकता दी। ये व ̈ धर ̈हर ह ै जिसक ̈ सुरक्षित रखने क¢ लिये हमारे संस्कृति प्रेमिय ̈ ं ने अपने सम्पूर्ण जीवन की आहूति दी। संगीत मानव समाज की एक कलात्मक उपलब्धि ह ै। यह लयकारी सांस्कृतिक परम्पराअ ̈ं का एक मूर्तिमान प्रतीक ह ै अ©र भावना की उत्कृष्ट कृति ह ै। अमूर्त भावनाअ ̈ ं क ̈ मूर्त रूप देने का माध्यम ही संगीत ह ै एवं मूर्ति रूप ह ̈ने क¢ कारण संगीत ल ̈क रुचि क¢ अनुरूप जन-जन में सर्व त्र विद्यमान ह ै। भारतीय संगीत क ̈ पहले गुरू क ¢ द्वारा सुनने क¢ बाद ही सिखाये जाने की परम्परा थी यानी गुरू षिष्य परम्परा क¢ अंतर्गत ही संगीत कला हस्तान्तरित ह ̈ती आई ह ै। यह परम्परा इतनी अनुषासित सुदृढ़ एवं य ̈जनाबद्ध थी कि जिसक ¢ कारण उस समय छपाई, रिकार्डिंग आदि आध ुनिक साधन न ह ̈ते ह ुये भी वह एक पीढी़ से दूसरी पीढ़ी तक ग्रहण करते ह ुये वर्तमान स्वरूप तक जा पह ुँची ह ै। इतिहास साक्षी है कि सामाजिक एवं राजनीतिक, परिस्थितियों का कला पर बह ुत प्रभाव पड़ता ह ै। कला आश्रय चाहती ह ै फलने-फ ूलने क ¢ लिये उसे स्वस्थ वातावरण एव ं आश्रय की आवष्यकता ह ̈ती ह ै। संगीत षिक्षण पद्धति क ¢ संब ंध मे अधिकतर स्थान ̈ ं पर व्यक्तिगत षिक्षण पद्धति, जिसे गुरू षिष्य परम्परा कहा जाता ह ै का ही उल्लेख मिलता है। प्राचीनकाल में संगीत क ¢ क्रियात्मक पक्ष पर अधिक बल दिया जाता था। ब©द्धिक विव ेचन की आवष्यकता को उन्ह ̈ ंने महत्व नहीं दिया परन्तु क्रियात्मक पक्ष क ¢ कायदे, मूल सिद्धान्त ̈ं का उन्ह ̈ंने उल्लंघन नहीं किया। मध्यकाल में ही संगीत षिक्षा का स्वरूप क्या रहा इसका अनुमान जहाँ तहाँ बिखरे ह ुए सांगीतिक उल्लेख ज ̈ मिले ह ै ं उससे सिद्ध ह ुआ ह ै कि उस समय भी सभी क ̈ राजाश्रय प्राप्त था एवं षिक्षण पद्धति गुरू षिष्य परम्परा क ¢ अन्तर्गत थी।