गुरू-शिष्य परम्परा बनाम द ूरस्थ शिक्षा कथक नृत्य के स ंदर्भ में

Main Author: डा ॅ. पि ्रयंका व ैद्य
Format: Article Journal
Terbitan: , 2017
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  • यह ष्लोक भारतीय दर्ष न, संस्कृति व परम्परा में गुरू क े स्थान का े दर्षा ता है। हमारी प्रत्येक यज्ञ आह ुति में, हर पूजा में इस ष्लोक को बा ेला जाता ह ै। क्या यह हमारे जीवन में गुरू क े स्थान को नही ं दर्षा ता? भारतीय दर्ष न में मनुष्य का े कर्म और ज्ञान के समन्वित रूप से ही स्वीकार किया गया है। उसके ये दो रूप ही उसे समाज में पहचान एवं प ्रतिष्ठा प ्राप्त करने में मार्ग प ्रषस्त करते ह ै ं। माता-पिता मनुष्य का े जन्म देन े क े कारक ह ैं, परन्तु ब ुद्धि, ज्ञान व कर्म का प ्रकाष गुरू के द्वारा ही मनुष्य को प ्राप्त होता है। आज की पीढ़ी नये ज्ञान के प्रकाष में जो कि व ैज्ञानिक ज्ञान है, कम्प्यूटर द्वारा एवं इंटरनेट द्वारा प ्राप्त ह ै, का े सम्पूर्ण मान गुरू की महत्ता का े भूलती जा रही ह ै। परंतु इस सब के पीछे भी मनुष्य का ज्ञान, उसकी योग्यता ह ै आ ैर इस ज्ञान और या ेग्यता से उसका े परिचित कराने वाला गुरू ही है। गुरू क े द्वारा प्रदत्त ज्ञान और या ेग्यता से ही मनुष्य अपने जीवन को सुखमय आ ैर सम्पन्न बनाता ह ै। जिस प्रकार से कबीरदास जी ने कहा है कि - सतगुरू की महीमा अनंत किया उपकार। लोचन अनत उघाडिया, अनंत दिखावण हार।। गुरू जा े अज्ञानता आ ैर अविद्या का अंधकार दूर करके हमें ऐसी दिव्य दृष्टि प ्रदान करता ह ै जिसस े हम उस निराकार रूपी ब ्रह्म का े भी देख सकते ह ैं ए ेसे गुरू का े नमन करते ह ुए षोध प ्रपत्र में गुरू-षिष्य परम्परा का े एव ं वर्तमान में प ्रचलित इंटरनेट व कम्प्यूटर द्वारा दी जा रही दूरस्थ षिक्षा के संदर्भ में विचार व्यक्त किये ह ै ं। षास्त्रीय नृत्य कला की षुद्धता, उसकी प ्रामाणिकता एवं उसका सौन्दर्य बा ेध नृत्य की सही पहचान कराने की जिम्मेदारी गुरू पर होती है। गुरू द्वारा प्रतिभा को विकसित करना कला के लिये अत्यन्त आवष्यक है, तभी नृत्य की धरा ेहर को षिष्य संजा े सकता है, जिससे कि नृत्य कला सुरक्षित रह सकती ह ै।