शास्त्रीय नृत्या ें में नवीन प्रयोग

Main Author: डॉ. टीना तांब े
Format: Article Journal
Terbitan: , 2017
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Online Access: https://zenodo.org/record/884962
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  • परिवर्तन प्रकृति का नियम ह ै। प्रकृति में विद्यमान का ेई भी तत्व इस प्रक्रिया से अछूता नहीं रह पाया है। रहन-सहन, खान-पान, आचार-विचार, मान्यताए, मानसिकता, नैतिक मूल्य आदि तथा सामाजिक व सांस्कृतिक परिदृश्य क े प्रत्येक क्षेत्र म े ं परिवर्तन दृश्यमान ह ै। प्राकृतिक परिवर्तन तो नैसर्गिक रूप से होते रहते ह ै परंतु अन्य र्कइ क्षेत्रा ें में यह परिवर्तन मानव की सृजनात्मक प्रव ृत्ति के फलस्वरूप उत्पन्न होते ह ै जिसमें प्रमुख ह ै “कला” क्षेत्र। सृजन करना मानव का नैसर्गिक गुण ह ै तथा नवीनता की खोज उसकी मूल प्रव ृत्ति। यही प्रवृत्ति जब निपुणता, कार्य का ैशल, प्रतिभा व सा ैन्दर्यबोध से प्रयुक्त हा ेकर सृजन का े नित-नवीन नयनाभिराम आवरण पहनाती है तब उसे हम कला कहते ह ै। ललित कलाओं क े अंतर्गत आने वाली प ंचकलाआ ें में से एक है संगीत कला तथा संगीत कला क े अंतर्गत आने वाली कलाओं में से एक ह ै नृत्य कला। भारतीय संस्कृति में नृत्य का े ईश्वर की उपासना का माध्यम समझा गया ह ै, यह ईश्वर से ही उत्पन्न ह ुआ ह ै व इसका आधार धर्म व आध्यात्म ही माना गया ह ै। चार व ेदा ें क े प्रमुख तत्वों का े ग्रहण कर प ंचम व ेद क े रूप मे ं निर्मित “नाट्य व ेद” मे ं नृत्य का े व्यवस्थित, शास्त्रोक्त व नियमबद्ध स्वरूप प्राप्त हुआ तथा यहीं से शास्त्रीय नृत्यों की समृद्ध परंपरा का आरंभ हुआ। शास्त्रीय नृत्य आरंभ से ही एकल प्रया ेज्य रह े ह ै, इनका प्रया ेग मंदिरा ें र्मे ं इ श्वर उपासना हेतु ह ुआ तथा आज आधुनिक समाज में य े नृत्य एक नयी दृष्टि व नवीन स्वरूप के साथ सामाजिक रंगमंच पर नए प्र ेक्षकों क े समक्ष उपस्थित ह ुये ह ै। प्राचीन काल से आधुनिक काल क े इस प्रवास में इन नृत्यों ने अनेक उतार चढाव व बदलाव देखे तथा समयानुरूप नवीन परिस्थितियों में नए दर्श को क े समक्ष अवतरित होने ह ेतु इन्हें अनेक नवीन कलेवर धारण करने पडे। शास्त्रीय नृत्यों क े नवीन सृजन, नवीन प्रयोग व नवीन प्रवृत्तियों क े इस प्रवास पर कुछ प्रकाश डालने का यह एक प्रयास है।