स ंगीत क े प्रचार प्रसार में स ंचार साधन ̈ ं की भूमिका
Main Author: | डा ॅ. स्मिता सहस्त्रब ुद्धे |
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Format: | Article Journal |
Terbitan: |
, 2017
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Subjects: | |
Online Access: |
https://zenodo.org/record/884794 |
Daftar Isi:
- संगीत जीवन क¢ ताने-बाने का वह धागा है जिसक¢ बिना जीवन सत् अ©र चित् का अंश ह ̈कर भी आनंद रहित रहता ह ै तथा नीरस प्रतीत ह ̈ेता ह ै। संगीत में ए ेसी दिव्य शक्ति ह ै कि उसक ¢ गीत क ¢ अर्थ अ©र शब्द ̈ं क ̈ समझे बिना भी प्रत्येक व्यक्ति उसस े गहरा सम्बन्ध महसूस करता ह ै। ”संगीत“ एक चित्ताकर्शक विद्या ज ̈ मन क ̈ आकर्षि त करती ह ै। गीत क ¢ शब्द न समझ पाने पर भी ध ुन पसंद आने पर ल ̈ग उस गीत क ̈ गाते ह ैं, क्य ̈ ंकि भारतीय संगीत-कला भारतीय संस्कृति का एक अभिन्न अ ंग है एवं भारत क ¢ निवासिय ̈ं की जीवनशैली का प्रमाण ह ैं। ”संगीत“ मानव समाज की कलात्मक उपलब्धिय ̈ ं अ©र सांस्कृतिक परम्पराअ ̈ं का मूर्तमान प्रतीक ह ै। यह आदिकाल से ही जनजीवन क ¢ लिये आत्मिक उल्लास अ©र सुखानुभूतिय ̈ ं की ललित अभिव्यक्ति का मध ुरतम माध्यम रहा ह ै। हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत परिवर्तनशीलता एवं विकास का अनुपम उदाहरण रहा ह ै। परिवर्तन ̈ ं में स्वयं क ̈ समाहित करने की इस कला में अद्वितीय शक्ति रही ह ै। इस विकास क ¢ क्रम में नवीन प्रय ̈ग ह ुए परंतु विकास की धारा कहीं टूटी नहीं है, जैसे फल पकता है अ©र उसका बीज उसी क¢ अन्दर रहता है उसी तरह शास्त्रीय संगीत की विभिन्न विधाअ ̈ ं क¢ मूल का भी कभी विच्छेद नहीं ह ुआ, परन्तु डार्विन क ¢ सिद्धान्त ”सरवाईवल आॅफ फिटेस“ या य ̈ग्यतम् की अतिजीवितता क¢ अनुसार परिवर्तन ह ̈ना समय की माँग है। स्वयं क ̈ समष्टि में पचा लेने की शक्ति क ¢ आधार पर हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत नव विन्यास ग्रहण करता गया। भारत क ¢ इतिहास में कलाअ ̈ं की दृष्टि से युगांतकारी परिवर्तन ह ̈ते रह े है। साहित्य, संगीत चित्रकला जैसी संवेदनशील कलाएं युग की समाप्ति तक अपने अस्तित्व क ̈ बनाए रखने क ¢ लिये विभिन्न विधाअ ̈ं में बँटती चली गयीं। आज क¢ इस व ैज्ञानिक युग में विज्ञान का प्रभाव जीवन क ¢ प्रत्येक क्षेत्र में दृष्टिग ̈चर ह ̈ रहा है। आध ुनिकतम व ैज्ञानिक उपकरण ̈ं क¢ माध्यम से आज हम अपनी इस पारम्परिक सांगीतिक धर ̈हर क ̈ सुरक्षित रख पाने में सफल व सक्षम ह ̈ सक¢ ह ैं।